शनिवार, 24 नवंबर 2012

इज़राइल-फिलिस्तीन विवाद और उसका मूल कारण ( भाग-1)

हम अक्सर अरब इज़राईल और इज़राइल-फिलिस्तीन विवाद के बारे मे सुनते रहते हैं। अभी हाल  के दिनो मे भी दोनों देश के मध्य हुए  भयानक युद्ध के कारण जानमाल की काफी क्षति दोनों पक्षो को उठानी पड़ी॥ इस विवाद के मूल मे जाए तो इस विवाद की शुरुवात 19वी शताब्दी के अंत मे प्रखर होते अरब राष्ट्रवाद और यहूदी राष्ट्रवाद मे है।
यहूदी धर्म इस्लाम और ईसाई धर्म से पूर्व का धर्म है । इनकी धार्मिक पुस्तक को ओल्ड टेस्टामेण्ट कहते हैं,जिसे बाइबिल का प्रथम भाग  या पूर्वार्ध भी कहते हैं।" पैगंबर अब्राहम (अबराहम या इब्राहिम)जो ईसा से 2000 वर्ष पूर्व हुए थे उन्हे इस धर्म का प्रवर्तक कहा जाता है  । पैगंबर अलै. अब्राहम के पोते का नाम हजरत अलै. याकूब था। हजरत अलै. याकूब का एक नाम इजरायल भी था,जिसके नाम पर आज का यहूदी राष्ट्र इजरायल है । हजरत अलै. याकूब के एक पुत्र का नाम जूदा या यहूदा था यहूदा के नाम पर ही इसके वंशज यहूदी कहलाए । अब्राहम को यहूदीमुसलमान और ईसाई तीनों धर्मों के लोग अपना पितामह मानते हैं। आदम से अब्राहमअब्राहम से मूसायहाँ तक ईसाई इस्लाम और यहूदी सभी धर्मो के पैगंबर एक ही है
मान्यताओं के अनुसार ईसा मसीह को अब्राहम का वंशज मान कर एक समुदाय ने ईसाई धर्म को मानना शुरू किया जबकि बाइबिल के ओल्ड टेस्टमेंट को मानने वालों ने ईसा मसीह  को ईश्वर का पुत्र स्वीकार नहीं किया और वो अब तक अपने मसीहा के अवतार के इंतजार मे है। ओल्ड टेस्टामेण्ट मे कही भी ये स्पष्ट नहीं है की ईश्वर का मसीहा कब अवतरित होगा। इस्लाम की तरह ये एकेश्वरवाद मे विश्वास रखते हैं । मूर्ति पूजा के विरोधी यहूदी खतने पर भी इस्लाम के साथ खड़े हुए दिखाई देते हैं।
4000 साल पुराने यहूदी धर्म का आधिपत्य मिस्र,इराकइजराइल सहित अरब के अधिकांश हिस्सों पर राज था। धीरे धीरे यहूदी भी इज़राइल और जुड़ाया कबीलो मे बट गए ये लोग फारसी यूनानी और ग्रीक कई शासनो के अधीन रहे। रोमन साम्राज्य के बाद जब ईसाई धर्म का उदय हुआ तो यहूदियो पर अत्याचार शुरू हो गए॥ इस्लाम के उदय के बाद इन पर अत्याचार का बढ़ाना  स्वाभाविक था। धीरे धीरे यहूदियों के हाथ  से उनका देश इज़राइल जाता रहा और प्राचीन काल से 20वी शदी तक यहूदियों पर जितने अत्याचार हुए हैं शायद ही किसी जाति पर हुआ हो ॥हिटलर की यहूदियों से दुश्मनी और लाखों यहूदियों की सामूहिक नर संहार इसी कड़ी का उदाहरण है। आज भी पूरा अरब जगत इज़राइल का नामोनिशान मिटा देना चाहता है ।
निरंतर होते अत्याचारो के कारण यूरोप के कई हिस्सों मे रहने वाले यहूदी विस्थापित हो कर फिलिस्तीन आने लगे। 19वी शताब्दी के  के अंत तक यहूदी मातृभूमि (Jewish Homeland") इज़राइल  की मांग जोरों शोरों से उठने लगी ।यहूदियों ने  फिलिस्तीन के अंदर एक अलग राज्य यहूदी मातृभूमि  की मांग की जो जर्मनी या तुर्की के अधीन हो । उन्होने उस समय फिलिस्तीन की मुसलमान जनसंख्या को नजरंदाज कर दिया । यहूदियों का ये सोचना की मुसलमान जनसंख्या यहूदी मातृभूमि की मांग स्वीकार होने के बाद आस पास के अरब देशो मे चली जाएगी ,इस विवाद की नीव मे था ।  यहूदियों ने उस फिलिस्तीन की कल्पना की जिसमे यूरोप से आए हुए लाखो यहूदी निर्णायक बहुमत मे होंगे । प्रथम जियोनिस्ट कांग्रेस की बैठक स्विट्जर लैंड मे हुआ और वहाँ World Zionist Organization (WZO). की स्थापना की गयी । तमाम बैठको और वार्तालापों के बाद 1906 मे विश्व यहूदी संगठन (WZO) ने फिलिस्तीन मे यहूदी मातृभूमि बनाने का निर्णय लिया ।इससे पूर्व अर्जेन्टीना को यहूदी मातृभूमि बनाने को लेकर भी चर्चा हुई थी।
यहूदियों की ये यहूदी मातृभूमि  की कल्पना फिलिस्तीन की बढ़ती हुई मुस्लिम जनसंख्या के कारण एक कभी न खत्म होने वाले विवाद का कारण बन रही थी 1914 तक फिलिस्तीन की कुल जनसंख्या लगभग 7 लाख थी जिसमे 6 लाख अरब मूस्लिम थे और लगभग 1 लाख यहूदी । प्रथम विश्व युद्ध के समय तुर्की ने जर्मनी आस्ट्रिया और हंगरी के साथ मित्र सेनाओं (जिनमे ब्रिटेन भी शामिल था) के विरोध मे  गठबंधन कर लिया। उस समय फिलिस्तीन पर तुर्की सेना का शासन था । इस युद्ध से अरबों और यहूदियों दोनों का भरी नुकसान हो रहा था उसी समय तुर्की के सैनिक शासन ने फिलिस्तीन से उन सभी यहूदियों को खदेड़ना शुरू किया जो रूस और यूरोप के अन्य देशो से आए हुए थे । इसी समय ब्रिटेन ने  अरब और फिलिस्तीन को तुर्की शासन से मुक्ति दिलाने के लिए प्रतिबद्धता जताई बशर्ते अरब देश और फिलिस्तीन तुर्की के विरोध मे मित्र सेनाओं का साथ दे।
प्रथम विश्व युद्ध के बाद ब्रिटेन और फ्रांस ने एक गुप्त समझौते  जिसे Sykes-Picot Agreement भी कहते है के अंतरगत  पूरे अरब जगत को दो "प्रभाव क्षेत्रों" मे बाट दिया गया जिसमे रूस की भी स्वीकृति थी । इसके अंतरगत सीरिया और लेबनान फ्रांस के प्रभाव क्षेत्र मे जॉर्डन इराक और फिलिस्तीन ब्रिटेन के क्षेत्र मे और फिलिस्तीन का कुछ क्षेत्र मित्र देशो की संयुक्त सरकार  के क्षेत्र मे था । रूस को  लिए इस्तांबुलतुर्की और अर्मेनिया का कुछ इलाका मिल गया ।
ब्रिटेन को यूएन जनादेश के अनुसार फिलिस्तीन और यहूदी मातृभूमि का क्षेत्र  
सन 1917 मे  ब्रिटेन के विदेश सचिव लार्ड बेलफोर और यहूदी नेता लार्ड रोथसचाइल्ड के बीच एक पत्रव्यवहार हुआ जिसमे लार्ड बेलफोर ने ब्रिटेन की ओर से ये आश्वासन दिया था की फिलिस्तीन को यदियों की मातृभूमि के रूप मे बनाने के लिए वो अपना सम्पूर्ण प्रयास करेंगे हालाँकि जनसंख्या के हिसाब से फिलिस्तीन मे  मुसलमान आबादी उस समय फिलिस्तीन की कुल आबादी की तीन चौथाई से भी ज्यादा थी। इस पत्रव्यवहार को बाद मे “The Balfour declaration”. का नाम दिया गया। मगर अब फिलिस्तीन मुस्लिमो ने "Balfour declaration" का विरोध करना शुरू किया।15 अप्रैल सन 1920 को इटली मे हुए San Remo Conference(सैन रेमो कान्फ्रेंस) मे मित्र देशो ने अमरीका ने फिलिस्तीन के लिए ब्रिटेन को अस्थायी जनादेश  दिया समझौते के अनुसार ब्रिटेन जो की फिलिस्तीन का प्रशासन देखेगा वो फिलिस्तीन को यहूदियों की मातृभूमि के रूप मे विकसित करने के लिए राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियाँ बनाएगा। 

इस जनादेश के अनुसार फिलिस्तीन मे यहूदी हितो को देखने वाली अजेंसी "The Jewish Agency for Palestine,"  से ब्रिटेन का प्रशासन सामंजस्य बना के यहूदी हितों एवं उनके पुनर्वास को आसान करेगा। सन 1920 मे ही ब्रिटेन ने सर हरबर्ट सैमुएल को ब्रिटेन  के फिलिस्तीन कमे पहले  उच्चायुक्त के रूप मे भेजा। (सैन रेमो कान्फ्रेंस) मे जो क्षेत्र यहूदी मातृभूमि के लिए निर्धारित किया गया था वो यहूदी संगठनो की मांग की अपेक्षा काफी बड़ा क्षेत्र था । ये बात भी काही जाने लगी की ये निर्धारण चर्च ने किया और कही कही ऐसे भी विचार रखे गए की ब्रिटेन के पास यहूदी मातृभूमि के लिए कोई सुदृढ़ खाका नहीं था।
सन 1922 मे ब्रिटेन ने जनादेश  वाले हिस्से को दो हिस्सों मे बाट दिया पहला हिस्सा जो अपेक्षाकृत बड़ा था वो ट्रांसजार्डन(बाद मे जार्डन) कहा गया और छोटा हिस्सा फिलिस्तीन कहा गया। दोनों हिस्से ब्रिटेन के प्रभाव क्षेत्र मे ही थे । बाद मे जार्डन को एक स्वतंत्र देश के रूप मे मान्यता मिल गयी । मगर इसके साथ यहूदियों का एक बड़ा हिस्सा इसे अपने साथ किए गए विश्वासघात के रूप मे देखने लगा क्यूकी  प्रस्तावित यहूदी मातृभूमि का एक बहुत बड़ा हिस्सा ट्रांसजार्डन के रूप मे उनके हाथ से निकाल चुका था ।
ट्रांसजार्डन अलग करने के बाद बचा क्षेत्र 
अब जैसा की मित्रदेशों का ब्रिटेन को जनादेश था फिलिस्तीन मे एक स्थानीय और स्वशासनीय सरकार का प्रबंध मगर यहूदी ऐसे किसी भी स्वशासनीय सरकार  के प्रबंध से डरे हुए थे क्यूकी इसमे जनसंख्या के अनुपात से अरबों की  बहुलता हो जाती दूसरी तरफ अरबों को कोई भी ऐसी व्यवस्था स्वीकार नहीं थी जिसमे यहूदियों की कोई भी भागीदारी हो। अतः किसी भी प्रकार की व्यवस्था नहीं बन पायी॥ 

अब धीरे धीरे अरबों और यहूदियों मे टकराव शुरू हो गया और दंगे होने लगे । अरबों के अनुसार फिलिस्तीन मे यहूदियों के विश्व के अन्य हिस्सो से आ के बसने  के कारण फिलिस्तीनी अरबों को निर्वासित होना पड़ेगा । नाजियों से पहले भी पोलैंड और पूर्वी यूरोप के कई भागो से यहूदी फिलिस्तीन आने लगे हिटलर के नाजी शासन मे यहूदी एजेंसियों ने हिटलर से एक समझौता कर हजारो लोगो को फिलस्तीन मे बसाकर उनकी जान बचाई। सन 1936 मे अरबों ने विद्रोह  कर दिया। विद्रोह का कारण ब्रिटेन के फौजों द्वारा  एक मुस्लिम धर्मगुरु की हत्या थी जो फिलिस्तीन मे यहूदियों और ब्रिटेन के खिलाफ झण्डा उठाए हुए था। इस विद्रोह मे हजारो अरब और यहूदी मारे गए। इस विद्रोह को हवा देने मे यहूदियों का कट्टर दुश्मन हिटलर और इटली के फासिस्ट शामिल थे । इसके बाद इंग्लैंड ने एक प्रस्ताव रखा जिसमे एक  यहूदी मातृभूमि दूसरा फिलिस्तीनी अरबों का क्षेत्र होगा इसे अरब देशो ने नकार दिया ॥

अगले लेख मे संयुक्त राष्ट्र द्वारा इज़राइल फिलिस्तीन का विभाजन ,गजापट्टी का स्थानातरण और फिलिस्तीन इज़राइल के मध्य हुए कई समझौते एवं कभी न खतम होने वाले युद्ध का वर्णन