शुक्रवार, 4 जनवरी 2013

रक्तबीज,लाल सलाम और माओवाद


आदि-शक्ति देवी दुर्गा  की पौराणिक कहानियों के एक दानव की कहानी बहुत प्रसिद्द है.उस दानव का नाम था रक्त बीज. इस दानव को मारना असंभव सा हो गया था क्योंकि जैसे ही कोई उस दानव पे हथियार से वार करता, दानव के ख़ून की एक एक बूँद से नया दानव बन जाता था.
बिलकुल ऐसा ही एक रक्तबीज फिर से हमारे समाज में लाल रंग के साथ फैला जा रहा है.
राजनीति की भाषा में उस दानव को नक्सलवाद कहते हैं.

सरकार की अपनी राजनितिक मजबूरियों के कारण उस पे हथियार-प्रयोग के अलावा और कोई रास्ता नहीं अपना सकती.
सेक्युलरवाद का प्रदर्शन करने वाली सरकार कभी भी वामपंथ (Left Wing) के प्रति कोई विनम्रता नहीं दिखा सकती. बार बार इन माओवादियों के खिलाफ सेना को लड़ने के लिए भेजा जाता है. सेना उनपे बंदूकें चलाती है और परिणाम क्या निकलता है- ये दानव और बढ़ जाता है. और सैनकों व पुलिस के जवानों को शहीद होना पड़ता है. सचमुच ये एक रक्तबीज है जितना काटोगे उतना बढेगा

आज 300 से ज्यादा जिले नक्सलवाद की हिंसा में जल रहे हैं. आखिर ये लाल रंग की हिंसा, गांधी के देश में आई कहाँ सेक्या होता है नक्सलवाद? क्या होता है माओवाद ? किसे कहते हैं वामपंथी?
इस सवाल का जवाब ढूंढने के लिए हमें इतिहास में बहुत पीछे जाना होगा.



17 वीं सदी में जब महान वैज्ञानिक जेम्स वाट ने भाप के इंजन का अविष्कार किया था तब दुनिया में एक क्रांतिकारी बदलाव आया।
और यहीं से मशीनी युग की शुरुआत हुयी. मशीनी युग के आते ही समाज दो भागों में बंट गया- 1.पूंजीपति वर्ग (Capitalist Class ) और
2.मजदूर वर्ग ( Labor Class )

फैक्ट्रियों से होने वाले बड़े मुफाफे को फिर से नयी फैक्ट्रियों में लगा देने से पूंजीपति वर्ग और अमीर होता चला गया.
मशीनों से बने सामान बहुत सस्ते और अच्छी गुणवत्ता के होने के कारणहाथ से बने सामानों की बिक्री ख़त्म हो गयी, मजदूर वर्ग और गरीब होता चला गया.





एक तरफ लोगों के हाथ से काम छीन गया और दूसरी तरफ पूंजीपतियों के पास प्रकृति के सभी संसाधनों पे कब्ज़ा करने की ताकत आ गयी.
पूंजीपति वर्ग का ताकतवर हो जाना गैर कानूनी नहीं था, लेकिन किसी एक व्यक्ति के द्वारा पैसों की ताकत से, सारे संसाधनों पे कब्जा कर लेना, जहां दुसरे लोग भूख से मर रहे हों, मानवता की दृष्टि में बिलकुल भी न्यायसंगत नहीं था.



समाज में पैदा हुयी इस दुविधा का हल किसी को नहीं दिखाई दे रहा था. समाज निराशा में डूब गया, वो इस बात से बेखबर था कि अचानक ही करिश्मे का जन्म होने वाला है.
उस करिश्मे का नाम था - कार्ल मार्क्स.




मार्क्स के अनुसार प्रकृति के सभी संसाधनों पे सारे मानवों का बराबर अधिकार है.
कैपिटलिज्म के विरोध में पैदा हुयी ये नयी विचारधारा कम्युनिज्म (कम्युनिस्ठवाद) के नाम से प्रसिद्द हुयी.
पीढ़ी दर पीढ़ी मार्क्स का कम्युनिज्म एक देश से दुसरे देश में फैलता चला गया.
मार्क्स के विचारों को राजनीती में महत्व मिलने लगा.
लेकिन यथार्थ के धरातल पे कैपिटलिज्म अभी भी नहीं हारा था. पैसों की ताकत के आगे विचारों की ताकत बहुत छोटी हो जाती है.
लोगों को लगने लगा था कि कम्युनिज्म सिर्फ कलम से स्थापित नहीं हो सकता.
और इसी के साथ जन्म हुआ कम्युनिज्म की भयानक स्वरुप का- माओत्से तुंग.




चीन में जन्मे विचारक माओत्से तुंग ने कम्युनिज्म को प्रबल करने के लिए हथियार उठाने की अपील की.
माओ के अनुसार कैपिटलिस्ट लोगों की हत्या कर देना ही एक मात्र हल है.
लोगों को माओ की ये बात बहुत ही सही लगी.
माओवाद इतनी तेजी से फैला जितनी तेजी से मार्क्सवाद भी नहीं फैला था.



चीन के निकटवर्ती भारत का उत्तर पूर्व का क्षेत्र भी माओवाद की आग से नहीं बच पाया.
उड़ीसा के एक गाँव नक्सलवाड़ी में आदिवासी माओवादियों ने कई उद्योगपतियों को जिन्दा जला दिया.
ये घटना नक्सलवाद के नाम से जानी गयी. यहीं  से वो रक्तबीज भारत में फैलता चला गया.
मुझे यहाँ  पे एक पुरानी घटना याद आ रही है. जब नक्सलियों ने एक कलेक्टर का अपहरण कर लिया था. जब वो कलेक्टर रिहा हो के आये तब स्वामी अग्निवेश ने उनसे पूछा- "आपको वहाँ किस तरह रखा जाता था ?"कलेक्टर ने जवाब दिया- "जैसे मैं अपने घर पे रहता हूँ, मुझे वहां भी वैसे ही रखा जाता था, सभी लोग मुझसे दोस्तों की तरह बात करते थे, साथ बैठ के खाना खाते थे और किसी तरह की कोई तकलीफ नहीं होने देते थे.एक नक्सलवादी भी आम आदमी होता है. उनका मकसद सिर्फ नरसंहार करना नहीं है.





पौराणिक दानव रक्तबीज की समस्या को देवी दुर्गा ने अच्छी तरह समझ लिया था और उसका सही समाधान निकाल लिया था.
उम्मीद है आने वाले समय में हमारी सरकार रक्तबीज पे हथियार उठा कर उसे और विकराल बनाने कि बजाये कोई समझदारी का कदम उठाएगी.



ये समस्या उतनी बड़ी नहीं जितनी हमने बना दी है, वो समय भी आएगा जब पूंजीवादी-अन्याय का हल, नक्सलवाद न हो कर कोई संवैधानिक और मानवीय तरीका होगा.


















लेखक:दिव्य प्रकाश श्रीवास्तव